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कविता

वेतन और आदमी

अभिज्ञात


हर महीने की सात तारीख को
अपना वेतन हाथ में लेते हुए
सोचते हैं वेतनभोगी
अब मैं इसे खाऊँगा
पूरे तीस दिन
सिर्फ तीस दिन ही नहीं

कोशिश रहेगी बचा रहे
अधिक से अधिक दिनों तक खाने लायक
जुटाने लायक जीने की तमाम सुविधाएँ
देने लायक मुसीबत के दिनों में दिलासा
कि है हमारे पास भी कुछ ऐसा
जो कर देगा हमारी मुश्किलें आसान
और कुछ नहीं तो उसके होने से
आ रही है बेखटके नींद
कोशिश रहेगी
उस समय तक बचा रहे
जब तक बची रहें साँसें
बची रहें आल औलाद
यह बात दीगर है
पुरजोर कोशिश के बाद भी
वह घट जाता है तीसरे ही हफ्ते
और वे जानते हैं
अगले महीने भर लगातार
हमें निगलता रहेगा आगामी वेतन
उसकी पूरी कोशिश रहेगी
वह हमें निगल जाए पूरा का पूरा
तनिक भी न बची रहे ऊर्जा
उसकी संभावना तक दूर-दूर

कई बार तो वह
लील जाना चाहता है
हमारी अस्मिता, हमारे सपने
हमारी ना कहने की हिम्मत
हमारी हँसी-खुशी के पल

वेतन चाहता है

हम बचे रहें बस उसके काबिल
रहें बस उसी के लिए
उसी के बारे में सोचते हुए

इस तरह यह सिलसिला
चलता रहता है
बरस-दर-बरस
चलती रहती है
एक होड़ निगल जाने
और बचा लेने के बीच।


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